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Sunday, July 3, 2016

कला की डोर (लघुकथा) - मोहित शर्मा ज़हन

रोज़ की तरह मंदिर के पास से घंटो भजन गा कर उठ रहे बुज़ुर्ग को पंडित जी ने रोका। 

पंडित जी - "बाबा मैंने सुना आपकी पेंशन आपका नकारा लड़का और बहु खा रहे हैं। आप घर से सटे टीन शेड में सोते हो?"

बाबा - "हाँ, शायद अपने ही कर्म होंगे पहले के जो सामने आ रहे हैं।"

पंडित जी - "तो पड़ोसी-पुलिस-रिश्तेदार किसी से बात करो। ठीक से खाना भी नहीं देते वो लोग आपको...यहाँ छोटी सी जगह गाने आते रहोगे तो मर जाओगे किसी दिन।"

बाबा - "पंडित जी, ऐसी हालत में मर तो बहुत पहले जाना चाहिए था पर कलाकार जो ठहरा, कला की डोर पकड़े जीवन चला रहा हूँ...खाने का तो पता नहीं पर यहाँ न आया तब मर जाऊंगा।"

समाप्त!

Art - Jorgina Sweeney

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Author Note - कुछ रचनात्मक लोगो को सामान्य दृष्टि से अलग कामो से संतुष्टि मिलती है। ऐसे काम जो सामान्य लोगो द्वारा धन-सम्पत्ति-यश जुटाने की तरफ बढ़े कदमों से परे एक अलग दुनिया में काल्पनिक महल करने से प्रतीत होते हैं। दूर से उनको देखकर हँसी आती है पर अगर गलती से आप उनकी दुनिया में भटक जाएं तो आपको एक ऐसा शिल्पकार दिखेगा जो हर दिन-हर घंटे-हर मिनट अपनी कला में तल्लीन रहता है। सामान्य दुनिया में आने पर उसमे एक शून्यता, अनुपस्थिति सी दिखाई देती है यह उसकी कल्पना के बंधन होते हैं जो उसे बेचैन रखते हैं। तभी अक्सर ऐसे लोग आम दुनिया में पिछड़ जाते हैं और फिर भी कई आगे बढ़े लोगो से सुखी दिखाई पड़ते हैं।

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